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Tuesday, 3 July 2018

अब वापसी का कोई रास्ता नहीं

भारत की संस्कृति अपनी जरूरत भर धनार्जन और संचय की रही है। हम प्राकृतिक संसाधनों का भी उतना ही दोहन करते रहे जितने की क्षतिपूर्ति वह स्वयं कर ले। इसलिए न जंगल घटते थे, न मौसमों का चक्र उल्टा घूमता था. न जलस्तर घटता था। न नदियां सूखती थीं, न पहाड़ों के अस्तित्व पर कोई खतरा मंडराता था। इसके ठीक विपरीत पश्चिमी देशों की संस्कृति अधिक से अधिक वैभव संग्रह और संसाधनों के दोहन की रही है। ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेजों ने यही किया और हम भी उनकी अधीनता और उन्हें श्रेष्ठ मानने के कारण उसी दृष्टिकोण पर अमल करने लगे। अंग्रेजों ने तो फिर भी 46 फीसद जंगल और वन्य जीवन छोड़ रखे थे। खनिजों के भंडार के बड़े हिस्से को भूगर्भ में रहने दिया था लेकिन आजादी के बाद हमने जंगलों का सफाया कर दिया। नदियों को विषाक्त कर दिया। हवा को दूषित कर दिया और भूगर्भ को काफी हद तक खोखला कर दिया। संतोषम् परम सुखम के दृष्टिकोण को हम पूरी तरह भुला बैटे। भौतिक सुखों की ओर भागने लगे और ज्यादा से ज्यादा वैभव इकट्ठा करने की होड़ में शामिल हो गए। अब अपने सांस्कृतिक मूल्यों का मखौल उड़ाना आधुनिकता का पर्याय बन गया। संस्कृति की दुहाई देने का जिम्मा धर्म को राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल करने वाले दलों ने उठा लिया। सांप्रदायिकता को धार्मिक आस्था और राष्ट्रवाद का प्रतीक बना दिया गया। पर्यावरण की तरह हमारी सोच भी दूषित होती चली गई। अब उपभोक्तावाद की जकड़न इतनी मजबूत हो चुकी है कि हम अपना आपा खो बैठो हैं हमारी तृष्णा की कोई सीमा नहीं रह गई है।
अब पश्चिमी संस्कृति ही हमारी संस्कृति बन चुकी है। हम हीनभाव से ग्रसित हैं। अपने गौरवशाली अतीत को भुलाकर मृगतृष्णा के पीछे दौड़ लगाते हुए हम काफी दूर निकल आए हैं। अब वापसी का कोई रास्ता बचा नहीं है। लेकिन क्या हमें एकबार आत्ममंथन करने की जरूरत नहीं है...।

जलेबी खिलाओ

रांची के अल्बर्ट एक्का चौक के पास एक व्यक्ति ठेले पर जलेबी बेच रहा था। तभी एक सिपाही आया और बोला-हटाओ ठेला। रोड जाम हो रहा है। जहां मन करता है वहीं ठेला लगा देते हैं। जैसे बाप की सड़क हो।...यह फरमान जारी कर वह आगे बढ़ गया।   कुछ देर बाद दूसरा सिपाही आया और बोला-आराम से बेचो। कोई परेशान करे तो मुझे बताओ। जलेबी खिलाओ।
ठेलेवाले ने कहा-अभी एक सिपाही जी ठेला हटाने को बोल गए हैं।
-फिर आए तो कह देना तिवारी जी ठेला यहीं रखने को बोल गए हैं। किसी के कहने पर मत हटाओ। जलेबी खिलाओ।
ठेलेवाले ने कड़ाही से ताज़ा जलेबी छन्ने से निकाला परात में रखा और सबसे पहले एक दोने में निकालकर सिपाही को दिया।  इसके बाद ग्राहकों को निपटाने में व्यस्त हो गया। सिपाही जलेबी का दोना लेकर आगे बढ़ गया जहां पहला सिपाही उसके आने का इंतजार कर रहा था। इसके बाद दोनों आराम से गरमा-गरम जलेबी का स्वाद लेने लगे। ठेलेवाले का उनकी ओर ध्यान नहीं गया वह अपने ग्राहकों की मांग पूरी करने में व्यस्त रहा।

Monday, 2 July 2018

...मगर कद में पहले से कम हो गए




-देवेंद्र गौतम

एक पाकिस्तानी शायर ने कहा था-

जुनूं में उठे विश्व तक दौड़ आएं
मगर कद में पहले से कम हो गए।

यह शेर झारखंड के पठारी इलाके में चरितार्थ हो उठा।
झारखंड के खूंटी जिले में कुछ समय से पत्थलगड़ी का आक्रामक आंदोलन हुआ था। अब यह आंदोलन अपनी अराजक कार्रवाइयों के कारण अपनी धार खो चुका है। इसके नेता भूमिगत हैं और कार्यकर्ता जंगलों में जा छुपे हैं। ग्रामीणों ने उनके आंदोलन को नकार दिया है। उनका कहना है कि वे किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहते। पांच आदिवासी रंगकर्मियों के साथ गैंगरेप के बाद इस आंदोलन से आदिवासियों का मोहभंग हो चुका है।
पत्थलगड़ी  कुछ आदिवासी जातियों की प्राचीन परंपरा है। आमतौर पर अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिए, उनकी कब्र के पास उनकी स्मृति में पत्थर गाड़कर उनके संबंध में उसपर अपने भाव अंकित किए जाते थे। खास अवसरों की स्मृति में अथवा गांव के सीमांकन के लिए भी पत्थलगड़ी की जाती रही है। लेकिन इसको
लेकर कभी न कोई विवाद हुआ न आपत्ति हुई।
लेकिन खूंटी और आसपास के जिलों में इसे पूरी व्यवस्था को नकारने और भारतीय संविधान तथा दंड व्यवस्था को चुनौती देने के निमित्त इस्तेमाल किया गया। ब्रिटिश शासन काल में आदिवासी विद्रोहों के बाद अंग्रेजों ने आदिवासियों के स्वशासन को संवैधानिक मान्यता देने के लिए विल्किंसन रूल्स, छोटानागपुर, संथाल परगना टेनेंसी एक्ट जैसे कई कानून बनाए गए थे। उन्हीं कानूनों का दुरुपयोग किया गया।
विजय कुजूर, यूसुफ पूर्ति नामक कुछ लोगों ने इस परंपरा की आड़ में कुछेक इलाकों में  समानांतर सत्ता कायम करने की योजना बनाई। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के बनाए कानूनी प्रावधानों के बहाने पत्थलगड़ी करके बाहरी लोगों के गांव में प्रवेश पर रोक लगा दी। राज्य सरकार और पुलिस-प्रशासन को मानने से इनकार कर दिया। कई बार पुलिस बल को बंधक बनाया गया। उनके मुताबिक वे सिर्फ राष्ट्रपति और उनके प्रतिनिधि राज्यपाल को ही मानेंगे। उन्होंने आदिवासियों को यह समझाना शुरू किया कि भारत के असली राजा आदिवासी हैं और अभी जो सरकारें चल रही हैं वह गैरकानूनी हैं। उन्होंने किसी अज्ञात स्रोत से आग्नेयास्त्र भी  इकट्ठा कर लिए और आदिवासियों पर हुकूमत करने लगे। जिन इलाकों में उनका आंदोलन चल रहा था वहां पुलिस प्रशासन का प्रवेश निषेध था लेकिन  प्रतिबंधित नक्सली संगठन पीएलएफए के उग्रवादियों के लिए दरवाजे खुले थे
। कहते हैं कि पीएलएफए के महासचिव का गुप्त ठिकाना इसी इलाके में है। इन इलाकों को अफीम की अवैध खेती के लिए भी चिन्हित किया जा चुका है। कई बार छापेमारी हुई है और  फसल जलाई जा चुकी है।
पत्थलगड़ी के अराजक आंदोलन के बाद राज्य सरकार सुरक्षात्मक रुख अख्तियार कर इससे निपटने के उपायों पर विचार कर रही थी। खूंटी और खरसावां के कुछेक प्रखंडों को छोड़कर शेष इलाकों के आदिवासी इस आंदोलन को अपनी परंपरा का दुरुपयोग मानते हुए इसका विरोध कर रहे थे। इस तरह सरकार के पक्ष में आदिवासी आबादी का बड़ा हिस्सा था लेकिन फिर भी सख्त कदम उठाने से बच रही थी। पत्थलगड़ी आंदोलनकारी  इसे  राजसत्ता की कमजोरी और अपने दबदबे की बढ़ोत्तरी मान रहे थे। वे अपने आंदोलन के विरोध को जरा भी बर्दास्त नहीं करते थे।
इसी दौरान एक स्वयंसेवी संस्था की नाट्य टीम मानव तस्करी के खिलाफ नुक्कड़ नाटक का मंचन करने निकली। पत्थलगड़ी समर्थकों की निचली कतारों ने उन्हें सबक सिखाने के लिए एक साजिश के तहत अपने इलाके में बुलवाया और उनका अपहरण कर निर्जन जंगल में ले गए। वहां रंगकर्मी युवकों को पेशाब कराकर पीने को विवश किया। युवतियों के साथ गैंगरेप किया और रंगकर्मी युवकों से ुसकी वीडियों बनाने को विवश किया। उनका मानना था कि इस घटना के बाद उनके आतंक का सिक्का जम जाएगा और उनके इलाकों में कोई आने का साहस नहीं करेगा। लेकिन इसका असर उल्टा हुआ। जो आदिवासी भय अथवा बहकावे में उनके समर्थन में खड़े थे वे भड़क उठे और उनके आंदोलन से पल्ला झाड़ लिया। हालांकि गैंगरेप के अगले दिन जब पूरे देश में िस घटना की निंदा हो रही थी,  फिर एक गांव में पत्थलगड़ी का आयोजन किया गया और उसमें आर्थिक दंड का भय दिखाकर भीड़ जुटाई गई। पुलिस के साथ उनकी भिड़ंत हो गई। की लोग गिरफ्तार हो गए। इसी बीच आंदोलनकारियों के एक जत्थे ने खूंटी के सांसद और जाने-माने आदिवासी नेता कड़िया मुंडा के आवास पर धावा बोल दिया और उनके तीन अंगरक्षकों समेत चार लोगं का अपहरण कर लिया। वे पुलिस से बात करने को तैयार नहीं थे और अपह्रतों को एक जगह से दूसरी जगह ले जा रहे थे। लेकिन जन-समर्थन के अभाव और प्रशासन के बढ़ते दबाव के कारण उन्होंने अपह्रतों को रिहा कर दिया। उन्होंने ताकत की मद में यह नहीं सोचा कि गैंगरेप की शिकार युवतियां भी आदिवासी थीं और कड़िया मुंडा के अंगरक्षक भी आदिवासी ही थे। आदिवासियों की समानांतर सत्ता कायम करने का सपना देखने वाले उन्हीं की परंपरा की आड़ ले रहे थे और उन्हीं को प्रताड़ित कर रहे थे। अब  गैंगरेप के आरोपियों समेत आंदोलन के सारे नेता-कार्यकर्ता मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए। उनके आंदोलन की भ्रूणहत्या हो गई। आंदोलन के नेता पूरे भारत में अपनी सत्ता कायम करने का मंसूबा लेकर चले लेकिन अंततः अपने ही खोल में दुबक जाने को विवश हुए।

Sunday, 1 July 2018

सुविचार

नरशरीर में तबतक किसी किसी प्रकार के रोग के जीवाणुओं का आक्रमण नहीं हो सकता जबतक वह दुराचरण, क्षय कुखाद्य और  असंयम के कारण पहले ही से दुर्बल और हीनवीर्य नहीं हो जाता।
                                                                     
  -स्वामी विवेकानंद

अब वापसी का कोई रास्ता नहीं

भारत की संस्कृति अपनी जरूरत भर धनार्जन और संचय की रही है। हम प्राकृतिक संसाधनों का भी उतना ही दोहन करते रहे जितने की क्षतिपूर्ति वह स्वयं क...