भारत की संस्कृति अपनी जरूरत भर धनार्जन और संचय की रही है। हम प्राकृतिक संसाधनों का भी उतना ही दोहन करते रहे जितने की क्षतिपूर्ति वह स्वयं कर ले। इसलिए न जंगल घटते थे, न मौसमों का चक्र उल्टा घूमता था. न जलस्तर घटता था। न नदियां सूखती थीं, न पहाड़ों के अस्तित्व पर कोई खतरा मंडराता था। इसके ठीक विपरीत पश्चिमी देशों की संस्कृति अधिक से अधिक वैभव संग्रह और संसाधनों के दोहन की रही है। ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेजों ने यही किया और हम भी उनकी अधीनता और उन्हें श्रेष्ठ मानने के कारण उसी दृष्टिकोण पर अमल करने लगे। अंग्रेजों ने तो फिर भी 46 फीसद जंगल और वन्य जीवन छोड़ रखे थे। खनिजों के भंडार के बड़े हिस्से को भूगर्भ में रहने दिया था लेकिन आजादी के बाद हमने जंगलों का सफाया कर दिया। नदियों को विषाक्त कर दिया। हवा को दूषित कर दिया और भूगर्भ को काफी हद तक खोखला कर दिया। संतोषम् परम सुखम के दृष्टिकोण को हम पूरी तरह भुला बैटे। भौतिक सुखों की ओर भागने लगे और ज्यादा से ज्यादा वैभव इकट्ठा करने की होड़ में शामिल हो गए। अब अपने सांस्कृतिक मूल्यों का मखौल उड़ाना आधुनिकता का पर्याय बन गया। संस्कृति की दुहाई देने का जिम्मा धर्म को राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल करने वाले दलों ने उठा लिया। सांप्रदायिकता को धार्मिक आस्था और राष्ट्रवाद का प्रतीक बना दिया गया। पर्यावरण की तरह हमारी सोच भी दूषित होती चली गई। अब उपभोक्तावाद की जकड़न इतनी मजबूत हो चुकी है कि हम अपना आपा खो बैठो हैं हमारी तृष्णा की कोई सीमा नहीं रह गई है।
अब पश्चिमी संस्कृति ही हमारी संस्कृति बन चुकी है। हम हीनभाव से ग्रसित हैं। अपने गौरवशाली अतीत को भुलाकर मृगतृष्णा के पीछे दौड़ लगाते हुए हम काफी दूर निकल आए हैं। अब वापसी का कोई रास्ता बचा नहीं है। लेकिन क्या हमें एकबार आत्ममंथन करने की जरूरत नहीं है...।
अब पश्चिमी संस्कृति ही हमारी संस्कृति बन चुकी है। हम हीनभाव से ग्रसित हैं। अपने गौरवशाली अतीत को भुलाकर मृगतृष्णा के पीछे दौड़ लगाते हुए हम काफी दूर निकल आए हैं। अब वापसी का कोई रास्ता बचा नहीं है। लेकिन क्या हमें एकबार आत्ममंथन करने की जरूरत नहीं है...।
No comments:
Post a Comment